सफाई, उचित खान पान के इंतजाम को बाबूजी निरीक्षित करते थे, बाबूजी नगर पालिका के स्वच्छता एवं खाद्य निरीक्षक थे  सीमित साधनो में चौकस व्यवस्था रहती और मेला निपट जाने पर नगरपालिका एवम् जिले के अधिकारी माँ नंदा सुनंदा का धन्यवाद अदा करते। तब की साफ़ सफ़ाई की तारीफ जब बाबुजी के जमाने के बुजुर्ग अब भी करते है तो सर फ़क्र से ऊँचा हो जाता है। आज भी अल्मोडा मे हमारा अस्तित्व हमारे पिता के नाम से है।

चम्पानौला की हमारी टीम जिसमे कैजा जड़जा बुवा ईजा एवम् बच्चे मिला कर संख्या 25 के पार हो जाती, डोला उठने वाले दिन सुबह से ही सज धज कर कैजा ईजा बुवा के चारो ओर चक्कर लगाने लगते के जल्दी जल्दी चूला चोका हो और लाला बाजार जीवन दाज्यू की छत से डोले का आनंद लिया जाय एवम् जीवन दाज्यू की मिठाई की दुकान से आई जलेबी व माल पूवे का लुफ्त उठाया जाय। लाला बाजार की सारी छत वानखेड़े स्टेडियम की तरह सुबह से खचा खच भर भर जाती, खाने पीने के का स्टॉक रहता, बाजार नाच गा कर निकलने वाली टोलियों से भरा रहता, गांव वाले एक दुसरे का हाथ पकड़ बाजार में घुमते रहते, नई नवेली दुल्हन अपने पतियो का दामन थाम मेले का लुफ्त लेती और जवा लड़को की टोली नई नवेली दुल्हन के कुतूहल देख खुश होती। मेले में खोने के डर से एक दुसरे का हाथ पकडे सब उस जगह को तलाश रहे होते जहा से नंद देवी का डोला देखा जा सके।

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शाम को 4 बजे माँ का डोला उठता और नंदा देवी के जयकारो से सारा अल्मोड़ा गुंजाय मान हो जाता, डोले के दर्शन कर एक हाथ में बाजा एक में गुब्बारा लेकर पो पो बाजा बजाते और आँखों पर लाल पीला पन्नी वाला चश्मा लगाए घर वापसी होती और इंतजार पुनः प्रारंभ हो जाता अगले साल के नंद देवी मेले का।

30 सालो से मौका नहीं मिला कौतिक में जाने का, जब हम बदल गए तो सब कुछ बदल गया होगा, सुना है पुलिस का खासा बंदोबस्त रहता है, जिले के सारे अधिकारी मेले की व्यवस्था में दिन रात एक कर देते है, बड़े बड़े स्टाल लगते है दिल्ली बॉम्बे के महगे उत्पाद बिकते है, बड़ा सा स्टेज लगाया जाता है बड़े – बड़े कलाकार पैसा लेकर कार्यक्रम करते है, वीआई पी पास मिलते है, बड़े – बड़े लोग दीप जला कार्यक्रम का आगाज करते है, बड़े लोग ही उन कार्यक्रमों का आनंद लेते है पर फलसीमा या हवाल बाग़ के भोले भाले गांव वालो का झोडा मस्ती से लाला बाजार में हुड़के की थाप पर नाचना दूर दूर तक कही दिखलाई नहीं देता। दही जलेबी के स्टाल कम, मोमो –  चाउमीन ज्यादा बिकने लगा है, छोटे झूलो की जगह बड़े बड़े बिजली के झूलो ने ले ली है और अब ये कौतिक नहीं एक आधुनिक मेला बन कर रह गया है जहा धार्मिक भावना कम मौज मस्ती का माहोल ज्यादा रहता है। ये सब सुनकर लगा कि अच्छा हुआ जो जाने का मौका नहीं मिला जाता और पुराने स्वरुप को नेस्नाबुत पाता तो ज्यादा दुःख होता।

कोई झोड़े, चाचरी में खोया है, कोइ खरीददारी कर रहा है, दही जलेबी का नाश्ता जगह जगह पर उपलब्ध है। स्त्रियां चूड़ी बिंदी से लेकर अनेको सौंदर्य प्रसाधनो पर टूटी जाती थी, बड़े भुटुवा कलेजी फिर बावन सीडी के पास भट्टी से गला तर करके आते और जुट जाते गाने बजाने में, कही कोई अभद्रता नहीं, हुड़दंग नहीं, मात्र तीन – चार सिपाहियों के जिम्मे पूरा मेला होता जो सौहार्दपूर्ण वातावरण में संपन्न हो जाता।

सफाई, उचित खान पान के इंतजाम को बाबूजी निरीक्षित करते थे, बाबूजी नगर पालिका के स्वच्छता एवं खाद्य निरीक्षक थे  सीमित साधनो में चौकस व्यवस्था रहती और मेला निपट जाने पर नगरपालिका एवम् जिले के अधिकारी माँ नंदा सुनंदा का धन्यवाद अदा करते। तब की साफ़ सफ़ाई की तारीफ जब बाबुजी के जमाने के बुजुर्ग अब भी करते है तो सर फ़क्र से ऊँचा हो जाता है। आज भी अल्मोडा मे हमारा अस्तित्व हमारे पिता के नाम से है।

चम्पानौला की हमारी टीम जिसमे कैजा जड़जा बुवा ईजा एवम् बच्चे मिला कर संख्या 25 के पार हो जाती, डोला उठने वाले दिन सुबह से ही सज धज कर कैजा ईजा बुवा के चारो ओर चक्कर लगाने लगते के जल्दी जल्दी चूला चोका हो और लाला बाजार जीवन दाज्यू की छत से डोले का आनंद लिया जाय एवम् जीवन दाज्यू की मिठाई की दुकान से आई जलेबी व माल पूवे का लुफ्त उठाया जाय। लाला बाजार की सारी छत वानखेड़े स्टेडियम की तरह सुबह से खचा खच भर भर जाती, खाने पीने के का स्टॉक रहता, बाजार नाच गा कर निकलने वाली टोलियों से भरा रहता, गांव वाले एक दुसरे का हाथ पकड़ बाजार में घुमते रहते, नई नवेली दुल्हन अपने पतियो का दामन थाम मेले का लुफ्त लेती और जवा लड़को की टोली नई नवेली दुल्हन के कुतूहल देख खुश होती। मेले में खोने के डर से एक दुसरे का हाथ पकडे सब उस जगह को तलाश रहे होते जहा से नंद देवी का डोला देखा जा सके।

शाम को 4 बजे माँ का डोला उठता और नंदा देवी के जयकारो से सारा अल्मोड़ा गुंजाय मान हो जाता, डोले के दर्शन कर एक हाथ में बाजा एक में गुब्बारा लेकर पो पो बाजा बजाते और आँखों पर लाल पीला पन्नी वाला चश्मा लगाए घर वापसी होती और इंतजार पुनः प्रारंभ हो जाता अगले साल के नंद देवी मेले का।

30 सालो से मौका नहीं मिला कौतिक में जाने का, जब हम बदल गए तो सब कुछ बदल गया होगा, सुना है पुलिस का खासा बंदोबस्त रहता है, जिले के सारे अधिकारी मेले की व्यवस्था में दिन रात एक कर देते है, बड़े बड़े स्टाल लगते है दिल्ली बॉम्बे के महगे उत्पाद बिकते है, बड़ा सा स्टेज लगाया जाता है बड़े – बड़े कलाकार पैसा लेकर कार्यक्रम करते है, वीआई पी पास मिलते है, बड़े – बड़े लोग दीप जला कार्यक्रम का आगाज करते है, बड़े लोग ही उन कार्यक्रमों का आनंद लेते है पर फलसीमा या हवाल बाग़ के भोले भाले गांव वालो का झोडा मस्ती से लाला बाजार में हुड़के की थाप पर नाचना दूर दूर तक कही दिखलाई नहीं देता। दही जलेबी के स्टाल कम, मोमो –  चाउमीन ज्यादा बिकने लगा है, छोटे झूलो की जगह बड़े बड़े बिजली के झूलो ने ले ली है और अब ये कौतिक नहीं एक आधुनिक मेला बन कर रह गया है जहा धार्मिक भावना कम मौज मस्ती का माहोल ज्यादा रहता है। ये सब सुनकर लगा कि अच्छा हुआ जो जाने का मौका नहीं मिला जाता और पुराने स्वरुप को नेस्नाबुत पाता तो ज्यादा दुःख होता।

आहा झोड़ा गाते गाते गोल गोल घुमते स्त्री और पुरुष, हुडुके की थाप, एक दुसरे के कंधो पर हाथ, मानव शृंखला मदमस्त नून तेल लकड़ी के चक्करो सेे दूर नाचते गाते नंदा देवी के मेले में चार चाँद लगा देते थे। नंदादेवी मंदिर से पलटन बाजार जाने के रास्ते में सारी बाजार में यही रौनक रहती। कोइ ग्रुप फलसीमा का है तो कोई डीनापानी, तो कोई हवालबाग से ही गाते बजाते मेले में शामिल होने चले आ रहे है। मस्ती में चूर ये नजारा अल्मोड़ा में मेला शुरू होने से डोला उठने के दिन तक रहता।

कोई झोड़े, चाचरी में खोया है, कोइ खरीददारी कर रहा है, दही जलेबी का नाश्ता जगह जगह पर उपलब्ध है। स्त्रियां चूड़ी बिंदी से लेकर अनेको सौंदर्य प्रसाधनो पर टूटी जाती थी, बड़े भुटुवा कलेजी फिर बावन सीडी के पास भट्टी से गला तर करके आते और जुट जाते गाने बजाने में, कही कोई अभद्रता नहीं, हुड़दंग नहीं, मात्र तीन – चार सिपाहियों के जिम्मे पूरा मेला होता जो सौहार्दपूर्ण वातावरण में संपन्न हो जाता।

सफाई, उचित खान पान के इंतजाम को बाबूजी निरीक्षित करते थे, बाबूजी नगर पालिका के स्वच्छता एवं खाद्य निरीक्षक थे  सीमित साधनो में चौकस व्यवस्था रहती और मेला निपट जाने पर नगरपालिका एवम् जिले के अधिकारी माँ नंदा सुनंदा का धन्यवाद अदा करते। तब की साफ़ सफ़ाई की तारीफ जब बाबुजी के जमाने के बुजुर्ग अब भी करते है तो सर फ़क्र से ऊँचा हो जाता है। आज भी अल्मोडा मे हमारा अस्तित्व हमारे पिता के नाम से है।

चम्पानौला की हमारी टीम जिसमे कैजा जड़जा बुवा ईजा एवम् बच्चे मिला कर संख्या 25 के पार हो जाती, डोला उठने वाले दिन सुबह से ही सज धज कर कैजा ईजा बुवा के चारो ओर चक्कर लगाने लगते के जल्दी जल्दी चूला चोका हो और लाला बाजार जीवन दाज्यू की छत से डोले का आनंद लिया जाय एवम् जीवन दाज्यू की मिठाई की दुकान से आई जलेबी व माल पूवे का लुफ्त उठाया जाय। लाला बाजार की सारी छत वानखेड़े स्टेडियम की तरह सुबह से खचा खच भर भर जाती, खाने पीने के का स्टॉक रहता, बाजार नाच गा कर निकलने वाली टोलियों से भरा रहता, गांव वाले एक दुसरे का हाथ पकड़ बाजार में घुमते रहते, नई नवेली दुल्हन अपने पतियो का दामन थाम मेले का लुफ्त लेती और जवा लड़को की टोली नई नवेली दुल्हन के कुतूहल देख खुश होती। मेले में खोने के डर से एक दुसरे का हाथ पकडे सब उस जगह को तलाश रहे होते जहा से नंद देवी का डोला देखा जा सके।

शाम को 4 बजे माँ का डोला उठता और नंदा देवी के जयकारो से सारा अल्मोड़ा गुंजाय मान हो जाता, डोले के दर्शन कर एक हाथ में बाजा एक में गुब्बारा लेकर पो पो बाजा बजाते और आँखों पर लाल पीला पन्नी वाला चश्मा लगाए घर वापसी होती और इंतजार पुनः प्रारंभ हो जाता अगले साल के नंद देवी मेले का।

30 सालो से मौका नहीं मिला कौतिक में जाने का, जब हम बदल गए तो सब कुछ बदल गया होगा, सुना है पुलिस का खासा बंदोबस्त रहता है, जिले के सारे अधिकारी मेले की व्यवस्था में दिन रात एक कर देते है, बड़े बड़े स्टाल लगते है दिल्ली बॉम्बे के महगे उत्पाद बिकते है, बड़ा सा स्टेज लगाया जाता है बड़े – बड़े कलाकार पैसा लेकर कार्यक्रम करते है, वीआई पी पास मिलते है, बड़े – बड़े लोग दीप जला कार्यक्रम का आगाज करते है, बड़े लोग ही उन कार्यक्रमों का आनंद लेते है पर फलसीमा या हवाल बाग़ के भोले भाले गांव वालो का झोडा मस्ती से लाला बाजार में हुड़के की थाप पर नाचना दूर दूर तक कही दिखलाई नहीं देता। दही जलेबी के स्टाल कम, मोमो –  चाउमीन ज्यादा बिकने लगा है, छोटे झूलो की जगह बड़े बड़े बिजली के झूलो ने ले ली है और अब ये कौतिक नहीं एक आधुनिक मेला बन कर रह गया है जहा धार्मिक भावना कम मौज मस्ती का माहोल ज्यादा रहता है। ये सब सुनकर लगा कि अच्छा हुआ जो जाने का मौका नहीं मिला जाता और पुराने स्वरुप को नेस्नाबुत पाता तो ज्यादा दुःख होता।

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