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Hariya Pele
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अल्मोड़ा का पेले (हरिया), कभी फूटबाल का सितारा, अब कहाँ!

Sushil Tewari
Last updated: 2022/09/26 at 11:17 AM
Sushil Tewari Published September 26, 2022
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आज बात केवल एक खेल प्रतिभा की। हरिया पेले … जो अल्मोड़ा में 90 के दशक का फूटबाल का जादूगर था।

बरस 1990 के शुरुआत का वह दौर जब दुनिया के एक समाजवादी देश के ढहने और ‘आर्थिक आजादी’ जैसे सपने के शोर में हमारा देश भी उस पीढ़ी को अपने हित के सब्ज़बाग दिखाने में कामयाब रहा था जिसकी चर्चा अमूमन अब नहीं होती। खैर…।

उस दौर के एक नाचीज़ किशोर के तौर पर आज मैं यह दिल खोल के कह सकता हूँ कि इस दौर से पहले हमारे हिस्से भी कुछ बरस की वह हसीन ज़िन्दगी आई जबकि हम अपनी किशोरावस्था में प्रवेश कर चुके थे।

अब मसला यह नहीं की हमने कितना अर्सा उस जि़न्दगी को जिया,मसला उसे महसूसने का है,चाहे वह हमारे हिस्से महज़ 2/4 बरस ही आई हो, फिर भी आज मुझे लगता है कि असल मायनों में वह ज़िन्दगी बेहतर थी बहरहाल..

परिवर्तन के उस दौर में हमारी किशोरावस्था हमें सब्ज़बाग के हर उस हिस्से तक ले गई जहाँ तक वह जा सकती थी।

मसलन हमारी ज़िन्दगी में कैरी पैकर का दिया हुआ रंगीन कपड़ो वाला दिन-रात क्रिकेट, जैन्टलमैंस गेम से अधिक व्यवसायिक होने जा रहा था।

ऐसे में कुछ दोस्तों के कहने पर हमने भी क्रिकेट कोचिंग में नाम लिखवा डाला पर अपनी कद काठी के चलते कोच पर कोई खास प्रभाव डालने में तो नाकाम रहे..हाँ..पर बिना उनकी किसी आशा के साथ 4/6 महीनें हम क्रिकेट की बेसिक्स समझने में सफ़ल रहे।

उन दिनों तक अल्मोड़ा में खेल,साहित्य और संस्क्रति का मेल सांझा सा हुआ करता था यानि जनता में इन चीजों की स्पष्ट तम़ीज़ व समझ हुआ करती,कुछ अलग2 भी व कुछ मिलीजुली भी, कुछ लोग तो तीनों प्रतिरूपों में अव्वल होते,और वही हमारे हीरो हुआ करते।

ऐसे में खेलों की बात करें तो अल्मोड़ा स्टेडियम से लगे हुए गाँव खत्याड़ी के लड़के वहाँ के हीरो हुआ करते और उसकी वजह उनका स्टेडियम को अपने आँगन के रूप में देखना और समझना था।

उस समय खत्याड़ी का एकछत्र राज चलता और यह राज खत्याड़ी से दूर रहने वालो की डाह का कारण बनता।

एक से बढ़कर एक खिलाड़ी हुआ करते जिसमें हाॅकी, फुटबाल, खोखो, बालीबाॅल,एथलेटिक्स आदि.. पर क्रिकेट को छोड़कर..शायद उसका खर्चा आदि ग्रामीण परिवेश से मेल नहीं खाता इसलिए।

कुल मिलाकर खत्याड़ी के खिलाड़ियों का बड़ा रुतबा था और साथ ही इन सभी खेलों का संचालन व अभ्यास स्टेडियम के अलग-2 कोनों मे हुआ करता।

ऐसे में एक दिन हम अपने कोच की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर फुटबाल वाले हिस्से में पहुँच गये जहाँ छह – सात लड़के अभ्यास कर रहे थे जिनमें बीस के आसपास का एक गबरू जवान, गोरा चिट्टा और माथे तक घुंघराले बालों वाला लड़का जो स्लीवलैस लाल टीशर्ट, नेकर व स्पाइक यानि गडाम पहने लड़कों को सिखा रहा था।

बड़ी ही गम्भीरता से फुटबाल पर उसका नियंत्रण देख हमें बड़ा सुखद आश्चर्य हो रहा था और बहुत कम बोल रहे इस लड़के की दुनिया मानो उसी फुटबाल में जान पड़ रही थी, फिर अभ्यास खत्म होने पर भी वह अकेले ही फुटबाल से खेलता रहा। तब हमने उन फुटबाल खेलने वाले लड़कों से उसके विषय में जानकारी लेनी चाही तो उनमें एक लड़का बोला..”कौन..हरिया पेले..?”

मेरे इशारा करने पर फिर बोला..”हाँ..हाँ..भाई..वोई..वो हरिया पेले है..!”
तब हमारा एक साथी जल्द से बोल पड़ा.. “अबे ये कहाँ से पेले नजर आ रा इत्ता गोरा चिट्टा..पेले तो उल्टा तवा ठैरा..!”

तो बताने वाले ने चिढ़कर कहा..”बेटा कभी गेम देखना उसका.. पता चल जाएगा.. हाँ नी तो.. कभी खेलना बेटे उसके साथ.. इत्ता पेलेगा.. इत्ता पेलेगा.. पेल-2 के भूस भर देगा..!”

हम लोग डरकर हसँते हुए चुप हो गए।

बात आई गई हो गई। पर मैंने जी के बुक में लिखा हुआ पढ़ा था कि फुटबाल का ‘काला हीरा‘ किसे कहते है..उत्तर था ब्राजील का महान फुटबॅलर ‘पेले‘..।

चाहे उसे मैनें कभी खेलते हुए नहीं देखा पर अब मेरी नज़र हमेशा ‘हरिया पेले’ को सबसे पहले खोजती यहाँ तक की अपने कोच से भी पहले। और मैं जब भी उसे आते, जाते, खेलते, दौड़ते देखता वह पूरे तन मन से फुटबाॅल के साथ हुआ करता और उसकी नज़र सिर्फ और सिर्फ बाॅल पर हुआ करती।

कभी कभार मौका मिलने पर हम उसके साथ अभ्यास के बहाने उससे बात करने की कोशिश करते तब भी वह ज्यादा हमारी और ध्यान नहीं देता।

हमारे देखते-2 बाॅल पर उसका इतना नियंत्रण बढ़ गया कि जैसे बाॅल उसी के इशारे पर नाचती, कमाल का फुटवर्क और लाजवाब कौशल। खेलते और अभ्यास कराते लड़कों के लिए उसके पास बोलने को दो ही शब्द होते ‘चैक’ और ‘पास’।

खाली मैदान और उसकी रौ में हमनें उसे दोनों पैरों के बीच बाॅल फसाँकर आगे की ओर पल्टियाँ खाते हुए गोलपोस्ट तक पहुचँते हुए भी देखा, ऐसे में किसी और की उसके सामने जाने की हिम्मत न पड़ी।

सच कहूँ तो मैनें बहुत कम मैच ‘हरिया पेले’ के देखे पर उससे ज्यादा उसका अभ्यास देखा और उस दशक में अल्मोड़ा में ‘हरिया पेले’ से बड़ा नाम फुटबाॅल में किसी का न था, आज भी शायद ही किसी का हो।

मुझे नहीं पता कि अल्मोड़ा जनपद, प्रदेश अथवा अन्य स्तर पर वह कितना खेला, न खेला पर एक खिलाड़ी को ‘पेले’ का उपनाम मिलना कतई मज़ाक की बात नहीं।

और सालों बाद एक दिन नरिया से अचानक पता चला कि ‘हरिया पेले’ अब फुटबाॅलर नहीं रहा बल्कि एक अवसादग्रस्त प्रेमी के रूप में बेस अस्पताल के आसपास के विभिन्न होटलों, ढाबों में जूठे बर्तन धोकर अपना पेट पालता है।

बेखुद/बेसुध सा रहने वाला, कहते हैं कि – ‘हरिया पेले’ अब अपनी किसी प्रेमिका के अधूरे और छोड़े गए प्यार में इधर उधर भटकता फिरता है ऐसे ही जैसे किसी हाॅलीवुड की फिल्म में ओरिजनल कहानी पर कोई फ़िल्म हो।

मुझे सुनकर विश्वास नहीं हुआ कि भूख, प्यास लगने पर किसी दुकान में बोझा उठाना या होटल में जूठे बर्तन धोने के बदले भोजन पाने को मजबूर ‘हरिया पेले’ अपनी उस नब्बे के दशक की अपनी लोकल सुपर हीरो की छवि के उलट आज रोटी-2 का मोहताज है।

तब एक दिन अचानक यूँ ही मैने गाड़ी से चलते हुए दूर सड़क के किनारे से चलकर आते ‘हरिया पेले’ के सामने यह कहकर गाड़ी रोकी कि..”हरीश भाई कैसे हो..?” (जबकि मुझे अब पता चला था कि उसका असल नाम हरीश जोशी है)..

तब मैनें अचानक उसकी आँखों में आई चमक को देख मुझे पहचानने का भ्रम लेकर जैसे ही उसका हाथ पकड़ना चाहा तो उसने उसी खामोशी से हाथ पीछे खींच लिया..।

कुछ रुपै हाथ में रखने की सोचकर मेरे जेब की ओर देखकर हाथ डालने तक मैनें देखा कि ‘हरिया पेले’ मुझे छोड़कर आगे बढ़ चुका था जैसे उसे माँगने की नहीं अपने कौशल से छीनने की आदत हो..।

कुछ आवाजें लगाई पर बेसुध ‘हरिया पेले’ अपनी ही मैदानी चाल में बेधड़क आगे बढ़ता चला गया जैसे उसका ध्यान अभी भी अपनी फुटबाॅल की तरफ़ हो।

पर अबकी बार उसे देखकर मुझे ‘पेले’ नहीं, अपना पसंदीदा ‘माराडोना’ नज़र आया,जिसे मैनें बार2 खेलता हुआ देखा था जो यूँ ही मैदान में और बाहर बेफिक्री की यही चाल चलता था।

वही घुंघराले बाल,पर कुछ सफेदी लिए और बेतरतीब बढ़ी घनी दाड़ी के साथ फिटनेस के अभाव में एकदम बढ़ी हुई तोंद जैसे आज भी ‘हरिया पेले’ जाने अनजाने अपनी फुटबाल को अपने पेट में लिए जाने कहाँ, कब, कैसे..इधर उधर भटकता फिर रहा है..।

ऐसा लगा कि आज भी ‘हरिया पेले’ को सिर्फ रोटी और फुटबाॅल की जरूरत है…।

कुल मिलाकर फिर यही कि इस सिस्टम नें कितनी आसानी से बेदर्दी व बेशर्मी के साथ किसी लड़की या प्रेमिका का ‘हरिया पेले’ के उजड़ने में हाथ दिखाकर अपने किये पर पर्दा डाल लिया।

शायद इस सिस्टम को नहीं पता कि खेल में ‘प्यार और प्रेमिकाऐं’ उजाड़ने को नहीं बल्कि श्रेष्टतम तक ले जाने तक मदद व साथ देती हैं।यकीन न हो तो विश्व के किसी कोने के सफल खेल सिस्टम को उठाकर देखिएगा।

बेशक हमारे वहाँ से भी कई खेल प्रतिभाऐं हर क्षेत्र में आगे बढ़ी पर उससे ज्यादा इस सिस्टम का शिकार बनी।

इस सिस्टम ने किशोरों को रोटी रोजी की चिन्ता तक उन्हें सब्ज़बाग दिखाकर उनकी जवानी से खुद को सींचा,फिर एक दौर के बाद आपस में मारपीट व हिंसा से पल्ला छुड़ाया और आज के नए दौर में यही सिस्टम की नाकामी उनके सपनों पर हावी होकर नशे की गिरफ़्त में है।

बेशक आज भी खत्याड़ी से लगा हुआ यह मैदान, गांव में अपने पैरों पर खड़े होते बच्चों और किशोरों को सबसे पहले अपनी ओर खींचता है…!

अल्मोड़ा स्टेडियम

अपने देश व समाज में अन्य सिस्टम की तरह ही खिलाड़ियों को तलाशने व तराशने के लिए कोई ऐसा टूल नही जिससे खिलाड़ियों को यह समझना आसान हो कि हाँ..मुझे अपनी मेहनत का लाभ मिलेगा ही मिलेगा, हज़ारो नहीं बल्कि लाखों खिलाड़ियों के बीच महज कुछ सौ खिलाड़ी मात्र ऐसे होंगें जिन्हें अपनी मेहनत के साथ भाग्य का भी सहारा मिल सका जिसकी वजह से वह स्टारडम को छूँ सके वरना लाखों लाख खिलाड़ी गुमनामी के अंधेरे में यूँ ही खो चुके होते हैं जो भी इसी भाग्यरुपी सिस्टम की देन है।

इसी वजह से हम आज भी देखते हैं कि अपने श्रेष्ठतम प्रदर्शन के बाद एक उम्र गुज़रने के बाद हमारे खिलाड़ी अपनी रोटी के लिए सब्जी बेचने से लेकर मेहनत मजदूरी के लिए मजबूर होते हैं।

कुल मिलाकर इस पूरे नाकाम व आधे अधूरे सिस्टम की बदौलत ही पूरी दुनिया में भारत को “विडम्बनाओं का देश” यूँ ही नहीं कहा जाता,जहाँ कि अचानक रातोंरात कोई एक क्रिकेटर, लेखक, गायक, एथलीट, नेता अथवा अभिनेता अन्य सभी अपने सहभागियों को पीछे छोड़कर सुपरस्टार का तमगा हासिल कर लेता है जबकि लाखों, हज़ारों अन्य उसी की ही लाइन में लगकर उसी की तरह हाड़तोड़ मेहनत के दम पर इसी सुनहरे भविष्य का अरमान पाले हुए होते हैं।

Sushil Tewari September 26, 2022
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