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बचपन वाली गर्मियों की छुट्टियां

Rajesh Budhalakoti
Last updated: 2020/04/18 at 6:29 PM
Rajesh Budhalakoti Published April 18, 2020
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बचपन की यादों मे नैनीताल के साउथ वूड कोटेज की हल्की हल्की यादे अब तक साथ निभा रही है, बाबुजी अल्मोडा मे कार्यरत थे और हम दोनो भाई एडम्स स्कूल मे पढ़ते थे, गर्मियों का अवकाश विशेष होता क्योकिं मुझे नैनीताल आमा बब्बा के पास जाने का मौका मिल्ता। बाबुजी अल्मोडा से केमू की बस मे नैनीताल के लिये बैठा देते और बब्बा तल्ली ताल डाट मे मुझे लेने को तैयार मिलते, एक मोड की चडाई, हिमालया होटल और उसके बगल मे हमारा निवास साउथ वुड कोटेज. सुन्दर घर इसकी उपरी मन्जिल मे रहते थे आमा और बब्बा।

Almora to Nainital Road

अभी भी याद है वो गर्मियों का अवकाश विशेष होता, सारा दिन बडे से लकडी के बने बडे बैठक के कमरे की खिड़की पर ही बीत जाता, उस कमरे की बडी सी खिड्की से बाहर नजारे देखते ही बनते थे, खिड़की से सारा नैनीताल दीखता, घर के पास देवदार का एक बडा सा पेड, लेक का सुन्दर दृश्य, चीना पीक, माल रोड, अगर बब्बा की दूरबीन से देखो तो रिक्शे चलते और इन्सान घूमते तक नजर आते।

इन सब मे खास होता पाल वाली नावो की जल क्रीडा। मुझे शब्द नही मिल पा रहे है अपने उस उत्साह और प्रसन्नता को व्यक्त करने के जो उस समय कतार से घूमती पाल वाली नावो को देख मन मे उभरती थी। तब इन नावो की पाल चकाचक सफ़ेद हुआ करती थी, कभी कभी लेक मे चन्द नावे होती तो शाम के समय सारा तालाब छोटी छोटी किश्तियों से भर जाता और मे कोशिश करता उन्हें गिनने की…

सच मे कोई खिड्की इतनी मनोरंजक हो सकती है अब विश्वास नही होता. उस दौरान हिमालया होटल बब्बा ने lease पर चलाया था फिर उसे साह परिवार स्वंय चलाने लगा था।

तब किशन चाचा और ललिता बुवा वहा पढाई करते थे, जाडे शुरू होते ही कोटाबाग प्रवास का कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाता और फ़सल संभाल बडी बना गर्मीयो के शुरु होते ही बब्बा लाव लस्कर समेत, अगले छह महिनो का राशन पानी लेकर यहा आ जाते। बब्बा शिकार के शोकीनो मे से थे और उन्होने कई शेरो का शिकार भी किया था, वैसे तो बब्बा कम बोलते पर अपने शिकार की कथा बडे चाव से सुनाते थे, बब्बा के अन्ग्रेज मित्रो के खान पान की व्यवस्था सीताबनी के जंगल मे बकरी बांध कर शेर की प्रतीक्षा और शिकार का वर्णन बहुत ही दिलचस्प और रोमांचित करने वाला होता।

बब्बा की अनुपस्थिति मे उनकी रिवाल्वर और बन्दूको से खेलने का आनन्द ही अलग था, सच मे उनकी हर वस्तु से जुडी एक कहानी थी और उनके साहस का गवाह था कमरे मे सजी शेर की पूरी खाल मुह सहित जो अगर रात को देख ले तो नीद नही आये उनके वैभव का प्रतीक थी। खून्खार शेरो को मार बगल मे रायफ़ल लिये बब्बा की कई तस्वीरे आज भी हमारे कोटा बाग वाले घर मे उपलब्ध है।

आमा मेरी सबसे प्रिय थी और मेरी हर बात मानती थी, उस मकान मे रसोई बाहर की तरफ़ थी और एक लकडी की सीढ़ी रसोई से सीधे बहार की तरफ़ खुल्ती थी। आमा अमूमन ज्यादा यही पर मिलती। मेरी पसन्द से आमा खूब परिचित थी और उनके हाथ का बना खाना आज भी जब याद आता है तो मन ललचा उठता है उस व्यंजन को खाने को, अब व्यंजन तो बन जाता है पर वो स्वाद कहाँ?

आमा के हाथ का रस भात और बड़ी का स्वाद तो मेरी जबान पर आज भी है, गर्मीयो मे सारी बुवाए उनका परिवार नैनीताल आ जाता और आमा संभाल लेती मोर्चा रसोई घर मे। सारा काम निपटने के बाद आमा अपना चमकता हुआ पानदान लेकर बैठती और और शुरु हो जाता करीने से पान के बीडो का निर्माण, और किसी को मिले न मिले मुझे आमा पान जरूर खिलाती और पान खाने के बाद शीशे के सामने खडा मे देखता के होंठ कितने लाल हुए।

बाजार जाना हो हाथ मे पैसे हाजिर, किसी भी वस्तु की फरमाइश करो तो तुरन्त वो चीज हाजिर, आमा मुझे बहुत प्यार करती थी, उस मकान की छत टिन की हुआ करती थी जब भी तेज बरिश होती टीन की टनटनाहट के बीच मे पता नही कब डर कर आमा के पास सोने चला जाता। आमा मुझे कस कर गले लगा लेती और मुझे अच्छी नीद आती..

आमा धोती पहन खाना बनाती और रसोई को छूने तक की मनाही होती थी जो चाहिए आपकी थाली मे हाजिर, कभी कभी मे आमा से अपनी बात मनाने को उन्हे रसोई मे आ जाने की धमकी तक दे डालता था और वो प्यार से मेरी बात मान लेती… खाना बना कर जब आमा बन संवर कर बैठी होती उनका वो रूप बहुत प्यारा होता वो सच मे राज माता वाला लुक देती और ये विश्वास नहीं होता था के ये वो ही आमा है जो थोड़ी देर पहले रसोई मे खाना बना रही थी… वे एक मृदुभाषी, संस्कारी, पाक ज्ञान मे कुशल महिला थी, मेने कभी उन्हे किसी से भी ऊँची आवाज मे बाते करते या किसी की बुराई करते नही सुना…

ये चन्द यादे अपने बुजुर्गो को नमन कर कलम बद्ध कर रहा हू जैसे जैसे आगे याद आयेगा लिखता रहूँगा…

आमीन।

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Rajesh Budhalakoti April 18, 2020
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